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Monday, 23 April 2018

स्वामी दयानंद की शिक्षा दाह_संस्कार:- कितना उचित-अनुचित!!

स्वामी दयानंद की शिक्षा




दाह संस्कार:- कितना उचित-अनुचित 



"सत्यार्थ प्रकाश" में स्वामी दयानंद सरस्वती ने एक प्रश्न की समीक्षा में लिखा है कि मुर्दे को गाड़ने से संसार की बड़ी हानि होती है, क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देता है। 

स्वामी जी आगे लिखते हैं कि मुर्दों को गाड़ने से अधिक भूमि खराब होती है। कब्रों को देखने से भय भी होता है, इसलिए मुर्दों को गाड़ना आदि सर्वथा निषिद्ध है।  


उन्होंने लिखा है कि मुर्दों को सबसे बुरा गाड़ना है, उससे कुछ थोड़ा बुरा जल (समुद्र/तलाब/नदी आदि) में डालना है, उससे कुछ एक थोड़ा बुरा जंगल में छोड़ना है और जो जलाना है वह सर्वोत्तम है, क्योंकि उसके सब पदार्थ अणु होकर वायु में उड़ जाते हैं। 


Maharishi  Dayanand Saraswati
किसी ने स्वामी जी से कहा की "जिससे प्रीति हो" उसको जलाना अच्छी बात नहीं है। गाड़ना तो ऐसा है जैसा उसको सुला देना है। इसलिए गाड़ना अच्छा है। 

स्वामी जी कहते हैं कि जो मृतक से प्रीति करते हो तो अपने घर में क्यों नहीं रखते? और गाड़ते भी क्यों हो? जिस जीवात्मा से प्रीति थी वह तो निकल गया, अब दुर्गन्धमय मिट्टी से क्या प्रीति ? जो प्रीति करते हो तो उसको पृथ्वी में क्यों गाड़ते हो, क्योंकि किसी से कोई कहे कि तुझको भूमि में गाड़ देवें तो वह सुनकर प्रसन्न कभी नहीं होता। (पृष्ट 586-587:13समुल्लास)




        एक सामान्य व्यवहार की बात है कि अगर बस्ती के पास कोई बदबूदार गन्दगी या कोई जानवर जैसे चूहा, बिल्ली, कुत्ता आदि मरा पड़ा हो तो बदबू से बचने के लिए बस्ती के लोग उसे मिट्टी में दबा देते हैं ताकि बदबू फैलकर मनुष्यों को प्रभावित न करे। मनुष्य की अंतरात्मा भी  कभी यह गवारा नही करेगी की किसी मृत जानवर को जलाया जाए। अगर कोई व्यक्ति किसी मृत जानवर को जलाएगा तो उसे अवश्य ही घिन आएगी।

 दूसरी- यह भी सामान्य सी बात है कि जब किसी वस्तु आदि को जलाया जाता है तो उससे अवश्य वायु प्रदूषित होती है। मृत मनुष्यों को जलाना तो वस्तु आदि के जलाने से कहीं अधिक हानिकारक और खतरनाक भी है क्योंकि मृत मनुष्य को जलाने से न केवल वायु प्रदूषित होती है बल्कि रोग-जनित गैसें भी निकलती हैं, जिनका प्रभाव मानव जीवन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अवश्य पड़ता है। 

तीसरा- एक मानवीय पहलू यह भी है कि जिस व्यक्ति के साथ हमने जीवन गुज़ारा है, जो हमारी आदरणीय माँ, बाप, प्रिय पत्नी, पुत्र व पुत्री आदि हैं। इनके मरने के बाद उसे अपनी आंखों के सामने, अपने ही हाथों से मृत शरीर के उपर-नीचे रखना, फिर उसके चारों ओर आग लगाना, फिर उनके सिर पर लठ मारकर फौडना, साथ ही उनके मुख में घी डालकर आग लगाना तथा उनकी हड्डियों तक को भस्मीभूत कर देना आदि कहाँ की मानवता हैं? 

क्या यह क्रिया दिल दहला देने वाली नहीं है? 

इस विषय से जुड़ा एक और अनैतिक व अमानवीय पहलू यह भी देखने में आता है कि जब किसी लाश को जलाया जाता है तो  मृत मनुष्य-महिला का कफ़न जलाने से पहले उतार दिया जाता है अथवा कफन. का  सफेद या लाल कपड़ा पहले जलता है और लाश नंगी हो जाती है। यह वाकिया मानवता को शर्मसार करने वाला होता है। लाश अगर माँ अथवा औरत की हो तो इससे अधिक निर्लज्जता की बात क्या कोई और हो सकती है?
स्वामी दयानंद जी ने दाह संस्कार की जो विधि बताई है वह विधि भी दफ़नाने की अपेक्षा कहीं अधिक महंगी है। जैसा कि स्वामी जी ने लिखा कि मुर्दे के दाह संस्कार में शरीर के वज़न के बराबर देसी घी, घी के एक सेर में रत्ती भर कस्तूरी, माशा भर केसर, कम से कम आधा मन चन्दन, अगर, तगर, कपूर आदि और पलाश आदि की लकडियां प्रयोग करनी चाहिए। मृत दरिद्र भी हो तो भी बीस सेर से कम घी'  चिता में न डाले। (पृष्ट 587-13 समुल्लास)

स्वामी दयानंद के दाह संस्कार में जो सामग्री उपयोग में लाई गई थी वह इस प्रकार थी- घी 4 मन यानि 149 कि. ग्रा., चंदन 2 मन यानि 75 कि. ग्रा., कपूर 5 सेर यानि 4.67 कि. ग्रा., केसर 1 सेर यानि 933 ग्राम, कस्तूरी 2 तोला यानि 23.32 ग्राम, लकड़ी 10 मन यानि 373 कि. ग्रा. आदि। (आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित पुस्तक, "महाऋषि दयानंद का जीवन चरित्र, पृष्ट-830)।

 उक्त सामग्री से सिद्ध होता है कि दाह संस्कार की क्रिया कितनी महंगी है। ग़रीब परिवार का कोई भी व्यक्ति इस क्रिया को निर्धारित सामग्री के साथ नहीं कर सकता। आज के भौतिकवादी दौर में उपरोक्त किसी भी सामग्री का शुद्ध और स्वच्छ मिलना भी न केवल मुश्किल है बल्कि असंभव भी है। 

अतः दाह संस्कार की विधि निर्धारित नियमों व मानकों के आधार पर करना अव्यावहारिक है, खर्चीली है और बेबुनियाद है। दाह संस्कार में मुर्दे के वजन के बराबर घी का सिद्धांत यानी किसी व्यक्ति के दाह संस्कार में 9-10 कनस्तर घी का इस्तेमाल होना,  क्या बेतुका-सा नहीं लगता? और इतना सबकुछ जलाने पर क्या वातावरण शुद्ध हो सकता है?

यहां एक बात और भी विचारिण्य है कि हिन्दू समाज में बच्चों, साधु-सन्यासियों को और कुछ वर्गों में आम व्यक्तियों को दफन किया जाता है। जब जलाना सर्वोत्तम है तो फिर सर्वोत्तम विधि से बच्चों और साधु-संतों का आग लगाकर अंतिम संस्कार क्यों नहीं किया जाता? 

अग्नि द्वारा किए जाने वाले अंतिम अग्नि संस्कार में अनेक रूढ़ियाँ व अनावश्यक अनुष्ठान भी सार्वभौमिक नहीं है। अपने-अपने क्षेत्रीय, वर्गीय और जातीय रीति-रिवाजों के अनुसार लोग अपने मुर्दों का दाह-संस्कार करते हैं। जब्कि अब तो हिन्दू समाज में दाह संस्कार की नई-नई तकनीक आ गई हैं। रुपयों-पैसों की भाग-दौड़ में रिश्ते-नातों का महत्व बहुत कम हो गया है। जिससे लगता है कि हमारी मानवीय संवेदना मर सी गई हैं। 

अब घी, चंदन और केसर की जगह एल.पी.जी. (घरेलू गैस) और उच्च वोल्टेज की विद्युत शक्ति का प्रयोग होने लगा है। इन आधुनिक शवदाह गृहों में चंद मिनटों में काम तमाम। न घी, न चंदन, न कोई झंझट। क्या आधुनिक शवदाह गृह इस बात का खुला प्रमाण नहीं है कि हमने अपनी सुविधाओं के अनुसार अपने संस्कारों और जीवन मूल्यों को बदला है। 

मुर्दों को दफन करना एक सार्वभौमिक सत्य है। अनेक जीवों में भी अपने-अपने मृत बच्चों को दफनाते हुए देखा जा सकता है। दफन-संस्कार की क्रिया सस्ती है, आसान  है और  सर्वोत्तम भी है। साथ ही साथ मानवीय मूल्यों के अनुकूल भी है। मुर्दे के कब्र पर पहुंचने से पहले ही कब्र को तैयार कर लिया जाता है। मृत को कब्र में ऐसे लिटा दिया जाता है मानो की उसे सुलाकर कमरा बंद कर दिया हो। अब मृत के साथ जो हो रहा है वह कम से कम हमारी आंखों के सामने और स्वयं हमारे द्वारा तो नहीं किया जा रहा है। दफ़नाने के दौरान मानवीय मूल्यों का भी पूरा-पूरा लिहाज़ रखा जाता है। 

अब रही बात प्रदूषण की तो उचित रूप से दफ़नाए जाने पर वायु प्रदूषण शून्य प्रतिशत होगा। आज विज्ञान का युग है और शोध द्वारा भी हम यह जान सकते हैं कि जलाने और दफ़नाने में कौन-सी विधि प्रदूषण रहित, उत्तम, सस्ती और आसान भी है। 

स्वामी जी का यह तर्क की मर्दों को दफ़नाने में भूमि अधिक ख़राब होती है तो यह कोई बौद्धिक और व्यावहारिक तर्क नहीं है। विश्व में ईसाई, यहूदी, मुसलमान, कम्युनिस्ट यानी करीब तर 85 प्रतिशत लोग अपने मुर्दों को दफ़न करते हैं। पृथ्वी इतनी विशाल है कि मानव जाति कभी भी उसका पूर्ण प्रयोग नही कर सकेगी। 
मृत व्यक्ति को जलाना इसलिए भी उचित नहीं है, क्योंकि अगर किसी व्यक्ति की जानबूझकर किसी षडयंत्र के तहत हत्या की गई है तो न्यायिक प्रक्रिया में हत्या के साधनों और कारणों को जानना भी अति आवश्यक होता है। हत्या के बाद मृतकों को तुरन्त जलाकर हत्या संबंधी सबूत छिप जाते हैं और अपराधी पर हत्या का केस कमजोर पड़ जाता है। आए दिन सुनने और पढ़ने में आता है कि बहू अथवा किसी अन्य व्यक्ति को जलाकर, जहर देकर अथवा गला घोंटकर मार दिया जाता है और लाश को जलाकर अतिशीध्र ठिकाने भी लगा दिया जाता है। ताकि हत्या के साधनों को छिपाकर कानून से बचा जा सके। इससे न्यायिक प्रक्रिया भी प्रभावित होती है और मृतक के संबंधियों को न्याय मिलने की सम्भावना भी कम रह जाती है। जबकि दफ़न करने की स्थिति में हत्या संबंधी जांच कई दिन, कई महीनों के बाद तक भी की जा सकती है। 

स्वामी जी ने अपनी समीक्षा में जिस तथ्य पर अधिक ज़ोर दिया है वह यह है कि मुर्दे को गाड़ने से वायु प्रदूषित होती है और जलाने से वायु प्रदूषित नहीं होती!!!। यह कितना अजीब और बचकाना तर्क है? 

कोई बताए कि वह कौन-सा विज्ञान है जो कहता है कि जलाने से वायु प्रदूषित नहीं होती ? मुर्दे को जलाने में जो अनेक कनस्तरों घी, केसर, कस्तूरी , चंदन आदि साम्रगी के इस्तेमाल का उपदेश और आदेश स्वामी जी ने दिया है!!!!!! जबकि दूसरा तथ्य यह भी है कि मुर्दे को जलाने से उसके सब पदार्थ अणु बनकर वायु में उड़ जाते हैं। कोई बताए कि मुर्दे के अणु आसमान में उड़कर कहाँ चले जाते हैं ?

स्वामी जी ने अपनी समीक्षा में जो तीसरा तथ्य प्रस्तुत किया है वह यह है कि किसी से कोई कहे की तुझको भूमि में गाड़ देवें तो यह सुनकर वह कभी प्रसन्न नहीं होता। यहां यह स्पष्ट नहीं है कि उक्त बात मृत से कही जा रही है या जीवित से।

 वैसे भी उक्त बात कितनी बेतुकी और बचकाना है? क्या कोई यह कहने से खुश होता है कि आ तुझे जला दें?, तुम्हारा सिर फौड दें, तुम्हें नंगा कर के तुम्हारे मुंह में आग लगा दें।

स्वामी जी का चौथा तथ्य यह है कि मुर्दे के मुंह, आंख, शरीर और धूल, पत्थर, ईंट, चुना डालना, छाती पर पत्थर रखना कौन-सा प्रीति का काम है? 

कोई इन्हें बताए कि मुर्दे की छाती पर कौन ईंट पत्थर रखता है? क्या स्वामी जी इतना भी नहीं जानते थे की मृत व्यक्ति को दफ़न किस प्रकार किया जाता था!!!?। मृतक की छाती पर लक्कड़ तो मृत व्यक्ति को जलाने में रखे जाते हैं न की दफ़न करने में। किसी वेद विद्वान द्वारा क्या खूब बुद्धि और विवेक का इस्तेमाल किया गया है!!!

 स्वामी जी द्वारा पांचवीं बात जो कही गई है' वह यह कि मुर्दे को गाड़ने से बेहतर है जंगल में छोड़ देना है। क्या यह दोहरी व बावलेपन की बात नहीं है? एक तरफ तो उनके द्वारा वायु प्रदूषण होने की बात कही जा रही है और दूसरी तरफ वायु को और अधिक प्रदूषित करने वाली नीति को उससे थोड़ा बुरा बताया जाता है अर्थात गाड़ने से जो धरती दूषित होती है उससे थोड़ा अच्छा जंगल में छोड़ देना है यानी सिर्फ वायु दूषित होगी। 

क्या उक्त बातों से यह सिद्ध नहीं होता कि हमें बस सच्चाई को न मानने की ज़िद है और हमें हर हाल में सच्चाई का विरोध ही करना है, नतीजा चाहे कुछ भी हो।

 स्वामी जी ने छठी बात जो कही है कि कब्रों को देखने से भय भी होता है। कोई बताए कि मुर्दे किसी का क्या बिगाड़ सकता है? जबकि लोग आग से डरकर दूर भागते हैं जबकि दफन चाहे बीज का हो या मृत जीव का' दफनाते समय जिज्ञासावश देखने हेतु लोग कब्र के नजदीक आते हैं।

अपौरुषेय-बाणी

निष्कर्ष :-    दाह संस्कार धर्म विरुद्ध, विज्ञान विरुद्ध और मानवीय मूल्यों के भी बिल्कुल ख़िलाफ़ है।



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