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Thursday, 26 April 2018

वेदो की निंदक गीता, मैं_मैं_हूँ.....



पुस्‍तक ''क्‍या बालू की भीत पर खड़ा है हिन्‍दू धर्म?'' डा. सुरेन्‍द्र कुमार शर्मा 'अज्ञात' विषय ''वेदों की निंदक गीता'' में लिखते हैं कि वेद और गीता सहित सभी धर्म ग्रंथ मनु-ष्य द्वारा रचित माने जाते हैं।



वेदों और गीता का विषयगत विश्‍लेषण इस निर्णय पर ले जाता है कि ये दोनों धर्म ग्रंथ एक ही 'धर्म' के नहीं हो सकते और ना ही इन का र‍चयिता एक ही तथाकथित परमात्‍मा हो सकता है,

वेदों में जगह जगह इच्‍छा और कामना पर बल दिया गया है-

कुर्वन्‍नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्‍छतं समाः

एवं त्‍वयि नान्‍य‍थेतोऽस्ति न कर्म लिप्‍यते नरे- यजु 40/2
अर्थातः हे मनुष्‍यों, कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की इच्‍छा करो


जबकि गीता कहती है-





अर्थात फल की इच्‍छा रखने वाले व्‍यक्ति फल में आसक्‍त होते हैं और बंधन में पड़ते हैं
...

वेदों की ऐसी खाल तो नास्तिकों ने भी नहीं उतारी होगी!!! जैसी गीता ने उतारी है, गीता में वेदों के नाम पर गलत बयानी की गई है। 
वेदों में कहीं भी ईश्‍वर को #पुरूषोत्तम नहीं कहा गया है।लेकिन गीता के 15 वें अध्‍याय में गीता का वक्‍ता स्‍वयंभू ईश्‍वर कहता हैः


अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित- पुरूषोत्तमः - 15/18
अर्थात में लोक और वेद में 'पुरूषोत्तम' के नाम से प्रसिद्ध हूं,

.....

गीता में अवतारवाद का सिद्धांत है 

वेदों में परमात्‍मा के अवतार धारण करने का कहीं उल्‍लेख नहीं मिलता, 

पर गीता का यह एक प्रमुख सिद्धांत है..

यदा यदा हि धर्मस्‍य ग्‍लानिर्भवति भारत
अभ्‍युतथानमधर्मस्‍य तदात्‍मानं सृजाम्‍यहम
परित्राणाय साध्‍ूनां विनाशाय च दुष्‍क़ताम्
धर्म संस्‍थापनार्थाय संभवामि युगेयुगे - गीता 4/7-8
अर्थात जब जब धर्म की ग्‍लानि होती और अधर्म की उन्‍नति होती है, तब तब मैं अर्थात (भगवान कृष्‍ण) पैदा होता हूं, साधुओ की रक्षा और पापियों के विनाश के लिए तथा धर्म को स्थापित करने के लिए मैं हर युग में पैदा होता हूं!

.....
एक धर्म के दो धर्मग्रंथों में ऐसा पारस्‍पारिक विरोध हिन्‍दू धर्म की ही विशेषता है। , हम दोनों धर्म ग्रंथों में से एक को पूरी तरह अस्‍वीकार करें या दोनों को। विद्वानों का एक विशेषतः आर्यसमाजियों ने पिछली शताब्‍दी में ही वेद और गीता के इस पारस्‍पारिक विरोध को पहचान कर अपने अपने ढंग से इस का परिहार करने की कोशिशें शुरू कर दी थीं।


  • स्‍वामी दयानंद सरस्‍वती के शिष्‍य पंडित भीमसेन शर्मा ने इस ओर सब से पहले ध्‍यान दिया और कदम भी उठाया। उन्‍होंने देखा कि गीता का ईश्‍वर साकार है जो वेदों में कथित निराकार ईश्‍वर के सिद्धांत के विपरीत है, अत- उन्‍होंने जिस जिस श्‍लोक में भी 'अहं' या पद 'मा' पद देखा उस उस श्‍लोक को झट अर्ध चन्‍द्र दे कर बाहर निकाल दिया और लगभग 238 श्‍लोकों को प्रक्षिप्‍त बता कर निकाल बाहर किया,                   
  • इस दिशा में एक दूसरे आर्यसमाजी विद्वान प. आर्य मुनि ने इस यक्ष प्रशन के समाधान के लिए एक और ढंग अपनाया, उन्‍होंने जहां 'अहं' पद देखा, वहां उस का अर्थ ' ईश्‍वर' कर दिया और जहां मा शब्‍द मिला, वहां उसका अर्थ वैदिक-धर्म कर दिया (देखें प. नरदेव शास्‍त्री वेदतीर्थ कृत 'आर्य समाज का इतिहास, पृ. 235) किंतु प. भीमसेन के प्रयास की तुलना में यह दूसरा प्रयास भी उपहास्‍पद है.                                  
  • इनके अतिरिक्‍त इस दिशा में और भी प्रयास किए गए, पञ भूमित्र शर्मा आर्योपदेशक और प. शिदत्त शास्‍त्री ने भास्‍कर प्रेस मेरठ से गीता एक संस्‍करण छपवाया जिस में केवल 13 अध्‍याय रखे, बाद में लाहौर से एक और संस्‍करण निकाला गया उसमें केवल 70 श्‍लोक रख्‍ो गए, शेष 630 श्लोकों को बाहर निकाल फेंके गए, यह काटछांट का तरीका ऊपरी लीपापोती ज्‍यादा कारगार सिद्ध न हुआ, आर्य समाजी वेद और गीता में से एक के वरण और दूसरे के परित्‍याग पर उतारू हैं।


आर्यसमाजियों के विद्वतापूर्ण् प्रयासों से वेद और गीता के मध्‍य की खाई और गहरी हो गयी है, लगता है गीता भक्‍तों और वेदानुयायियों में ध्रुवीकरण हो जायेगा, इस के साथ ही जनता में फैलाया गया व फैला यह अंधविश्‍वास कि 'वेद और गीता एक ही चीज हैं' भी समाप्‍त हो जाएगा

..........
गीता एक ही ब्रह्म के रचे हुए हैं,.. सुनिए कृष्‍ण के द्वारा ही-
ॐ तत्‍सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्‍पृतः
ब्राह्मणास्‍तेन वेदाश्‍च यज्ञाश्‍च विहिता पुरा - गीता 17/23
अर्थात हे अर्जुन, ओम् तत, सत ऐसे यह तीन प्रकार का सच्चिदानंदधन ब्रह्म का नाम कहा है, उसी से सृष्टि के आदिकाल में ब्राह्मण और वेदा यज्ञ आदि रचे गए हैं

गीता में कृष्‍ण स्‍पष्‍ट घोषना कर रहे हैं कि सब से प्रमुख वेद सामवेद मैं ही हूं-
वेदानां सामवेदा स्मि - गीता 10/22
......

पुस्‍तक ''कितने अप्रासंगिक है, इस धर्मग्रंथ'' में स.राकेशनाथ विषय 'गीता कर्मवाद की व्‍याख्‍या या कृष्‍ण का आत्‍मप्रचार'' में लिखते हैं,  गीता में कृष्‍ण्‍ ने अधिकांश समय आत्‍मप्रचार में लगाया है, गीता के अधिकांश श्‍लोकों में 'अस्‍मद' शब्‍द का किसी न किसी विभक्ति में प्रयोग किया गया है, 'अस्‍मद' शब्‍द उत्तम पुरूष के लिए प्रयोग किया जाता है और हिन्दी में इसका स्थानापन्‍न शब्‍द 'मैं'  होता है

गीता में कुल 700 श्‍लोक हैं, कृष्‍ण ने 620 श्‍लोक कहे और 375 बार 'मैं' का प्रयोग किया, इससे यह निष्‍कर्ष निकाला जा सकता है पूरी गीता में कृष्‍ण मैं, मुझ को, मैं ने, मेरे लिए, मेरा आदि शब्‍दों द्वारा अपनी ही बात कहते रहे हैं, अर्जुन के लिए जो कुछ कहा वह अपनी बात समझने का जोर डालने के लिए है।

गीता के कुछ स्‍थलों का दर्शन कराते हैं, जिन में कृष्‍ण द्वारा प्रयुक्‍त 'मैं' की भरमार से आप प्रभावित (बोर) हुए बिना नहीं रहेंगे, तब आप सरलता से अनुमान लगा सकेंगे कि गीता का नियमित पाठ करने वाले कितने बोर होते होंगे या उस का अर्थ जाने समझे बिना ही पढते जाते होंगे।
सातवें अध्‍याय में 30 श्‍लोक हैं, इन में से दो श्‍लोकों (20 व 26) को छोड कर शेष सब के साथ 'मैं' मौजूद है, कुछ पंक्तियां देखिए-
श्रीमद् भगवद् गीता 7/6/11 का अनुवादः
अर्थात में सारे संसार का उत्‍पत्त‍ि और प्रलय स्थान अर्थात मूल कारण हूं, मेरे 
(6)अतिरिक्‍त दूसरी वस्‍तु कुछ भी नहीं, यह सारा संसार मुझ में इस प्रकार गुंथा हुआ है जैसे धागे में मणियां पिरोई रहती हैं

 (7) हे अर्जुन मैं जल में रहता हूं तथा सुर्य चंद्रमा में प्रकाश हूँ, मैं सारे वेदों में ओंकार हूं, मैं आकाश में शब्‍द हूं, मैं मनुष्‍यों में पुरूषार्थ हूं 

(8) मैं धरती में पवित्र गंध हूं, मैं अग्नि में तेज हूं, मैं सारे प्राणियों में जीवन तथा मैं तपस्वियों में तप हूं 

(9) हे पार्थ मुझे सारे प्राणियों का सनातन कारण समझ मैं बुद्ध‍िमानों की बु‍द्धि‍ और मैं तेज वालों का तेज में हूँ

 (10) मैं बलवानों का काम तथा राग रहित बल हूं,मैं प्राणियां में धर्मानुकूल कामवासना हूं 

(11) मैं मैं हूँ

क्या कृष्‍ण जी से यह पूछा जा सकता है कि जब आपके सिवा सारे संसार में कुछ है ही नहीं तो ये बढिया वस्‍तुएं छांटने से क्‍या लाभ??? गोबर व मूत्र में क्यों नही?

नौवें प्रसंग के श्‍लोक में 34 श्‍लोक हैं और सब के सब कृष्‍ण की "मैं"मैं से भरे पडे हैं,

दसवें अध्‍याय में तो कमाल ही कर दिया है, इस अध्‍याय में कृष्‍ण ने 33 श्‍लोक कहें हैं, जिनमें 96 में "मैं" 'शब्‍द' का प्रयोग हुआ है, 
इनमें कृष्‍ण ने अच्‍छी अच्‍छी वस्‍तुएं छांट-छांट कर उनके अंदर  'स्‍वयं' को बताया है
जैसे हे अर्जुन मैं सब प्राणियों के ह्रदय में रहने वाला हू, मैं प्राणियों का आदि हूँ, मैं मध्‍य हूं, मैं अन्‍त हूं, मैं अतिति के पुत्रों में विष्‍णु हूं, मैं ज्‍यातिषियों में सूर्य हूं, मैं देवताओं में इंद्र हूं, मैं इंद्रियों में मन हूं, मैं भूतों में चेतना हूं, मैं एकाद रूद्रों में शंकर हूं, मैं यक्ष राक्षसों में कुबेर हूं, मैं आठ वस्तुओं में अग्नि हूं, मैं पर्वतों में मेरू हूं,...मैं.. मैं..में मैं हूँ .................................

अगर आजकल कृष्‍ण किसी को गीता का उपदेश दें तो उन्‍हें अपनी विभूतियों में निम्‍नलिखित तत्‍व और बढाने पडेंगे,

  • ''है अर्जुन में आयुधों में परमाणु हूं, 
  • रेलगाडियों में डीलक्‍स हूं, 
  • नेताओं में जवाहरलाल नेहरू हूं, 
  • सिने गाय‍िकाओं में लतामंगेश्‍कार हूं, 
  • होटलों में 'अशोका होटल' हूं, 
  • चीनियों में माओत्‍से तुंग हूं, 
  • प्रधान मंत्रियों में चर्चिल हूं, 
  • फिल्‍मों में 'संगम' हूं, 
  • मदिराओं में ह्वि‍स्‍की हूं, 
  • पर्वतारोहियों में तेनसिंह हूं, 
  • ठगों में नटरलाल हूं''


न जाने कैसा विचित्र समय था और कैसे-कैसे अज्ञानी लोग थे, ईश्‍वर को भी जानने वाला कोई नहीं था, उसे अपना परिचय स्‍वयं कराना पडा, अपनी एक एक बात विस्‍तार पूर्वक बतानी पडी। 

नीति तो यह बताती है कि अपने गुणों का स्‍वयं बखान करने से इंद्र भी छोटा बन जाता है।
'इंद्रोऽपि लघुतां याति स्‍वयं प्रख्‍यापितैर्गुणै' 
साभार :
अपौरुषेय-बाणी
बाबा-राजहंस


1 comment:

  1. Gay ke gobar aur mutra me to tum ho.. Bhagwan ke nindak tumhara wahi sthan hai jab unhone kah diya ki kan kan me mai hoon to ye achhe sthan aur bure sthan me bhed kaisa

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